
हाथो में हाथ लेकर दो कदम ही चले थे ,
मेरी आँखों में नमी और कुछ हंसीन सपने पले थे!
यू बीच रास्ते में ठुकरा गए सनम,
जल गए जज़्बात जो कभी इस दिल में पले थे !
उस पत्थर को नज़र आती नहीं पलकों की ये नमिया,
लगता नहीं कभी हम दो कदम साथ भी चले थे?
कोई कसर न छोड़ी इस कदर टूट के यू चाहा ,
अफ़सोस है उस घड़ी पर की जब वो हमसे मिले थे?
द्वारा
------------अनु राज
2 comments:
कविता और गीत की दुनिया में एक मासूम सी अनछुई अभिव्यक्ति...अनु राज ! उनको गीतों और कविताओं को जब पहली बार पढ़ा तो ऐसा लगा जैसे कोई कुंवारा बादल पहली बार अपने रेशमी अंतस में मीठे जल का अनमोल खजाना लेकर चला हो और टूटकर किसी खुश्क मरुथल के बदन पर बरस गया हो....! अनु के गीत प्रेम और विरह दोनों का सजीला प्रतिबिम्ब हैं...उनकी आंतरिक सहजता और सरलता उनके गीतों की हर कदम पर सहयात्री है....! मैं व्यक्तिगत रूप से उनकी कविताओं और गीतों का निकटतम प्रशंसक हूँ...! उनकी कवितायें कभी मीरा के विरह को छूती नज़र आती हैं और कभी रुक्मणि की प्रेमिल शिकायतों से भीगी द्रष्टिगत होती हैं...मैं मन की गहराइयों से उनके भावी काव्य-जीवन के लिए मंगलकामनाएँ करता हूँ !
--कुमार पंकज
कोई कसर न छोड़ी इस कदर टूट के यू चाहा ,
अफ़सोस है उस घड़ी पर की जब वो हमसे मिले थे?
bahut achha likha hai aur sada aise kalam chalee rahe kamana bhee hai
Anil masoomshayer
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