
इस गज गामिनी वामा को सोंदर्य सुधा क्यों कहते हैं?
पुरूष के चक्षु हरपल इसकी प्रतिमा पे टिके क्यों रहते हैं?
इस कांता की हर एक लचक ,
दामिनी बनकर कड़कती हैं ।
जब-जब ये दिखाए एक झलक ।
क्यों ह्रदय में ज्वाला भड़कती हैं ?
कानन भी अनुपम सोंदर्य का ,
बखान किया करता हैं ।
बनकर भृत्य ये शून्य भी ,
इसकी सेवा करता हैं।
इस अलंकृता को तो देखो ,
मदिरा का दूजा स्वरुप हैं।
इसे पाने की अभिलाषा हैं,
ऐसा प्रेममयी ये रूप हैं।
ये रतिपति की कल्पना ,
देवो को भी बहकाती हैं ।
ये ऐसी चंचल मरीचि हैं ,
संघर्ष यहाँ करवाती हैं ।
जब प्रेम मई मग्न ये होती हैं,
यूँ भाव-विभोर सी होती हैं।
अपने साजन के प्रेमवश ,
काँटों पर भी ये सोती हैं।
ये केकई और सीता दोनों के ,
अंतर्मन में समायी हैं ।
ये ब्रह्मा की वो रचना हैं ,
हर रूप मई जो मुस्काई हैं।
ये माँ भी हैं ,पत्नी भी हैं ,
बेटी का अनोखा रूप भी हैं।
ये तो ऐसा फूल हैं बगिया का ,
और इन्द्रधनुष का स्वरुप भी हैं ।
सम्मान इसे दे-दे ओ पुरूष ,
क्यों हरपाल मान घटाता हैं?
तेरे ही प्रेम की छायाँ ये ,
क्यों हरपल इसे रुलाता हैं?
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