Friday, September 19, 2008

[१४] इस प्रेम पंथ की कल्पना अति जटिल और व्यर्थ क्यों?


इस प्रेम पंथ की कल्पना ,अति जटिल और व्यर्थ क्यों?
काम , वासना ही तो मात्र ह्रदय का लक्ष्य पंथ क्यों ?
पाषाण गर ह्रदय बने तो अश्रुओं का क्या अर्थ हैं ?
एक दूजे से जुड़ कर कटना ही मात्र लक्ष्य पंथ क्यों?
परम पिता के अस्तित्व की पहचान ही अब व्यर्थ हैं,
तम् से भरे इस जीवन का ना कोई लक्ष्य पंथ क्यों?
उस चंद्रमा को छूने की कल्पनाये ही सब व्यर्थ हैं,
भू धरा के अस्तित्व का हर हाल में अब अंत क्यों?
खंडित हुए मन के सभी ,भ्रम जो पले थे व्यर्थ हैं,
मारुत और पाषाण के मिलन का ना कोई अर्थ क्यों?
विहंग सी यू बहते रहना मात्र लक्ष्य पंथ हैं,
"अनु" तेरा चंचल नदी सा बहना ही अब व्यर्थ क्यों?
द्वारा
------------------अनु राज

1 comment:

Unknown said...

aap to yaar bahut ache shayar ho aap ki to baat hi kuch aur hai u r so sweet